Saturday 1 September 2018

History Class 6 ( an overview) - I

CLASS 6th History (Overview)


  • काबरा पहाड़, सिंघनपुर गुफा रायगढ़ जिले में स्थित है । 
  • महंत घांसीदास संग्रहालय रायपुर में किरारी गांव बिलासपुर जिले से प्राप्त काष्ठ स्तंभ को रखा गया है ।
  • चितवाडोंगरी - दुर्ग तथा डौंडीलोहारा की गुफाओं में भी चित्र मिले हैं । 
  • ये चित्र रंगीन हैं तथा इनमें छिपकली,घड़ियाल तथा अन्य पशुओं के चित्र हैं ।
  • सिंघनपुर की गुफाओं में गहरे लाल रंग के चित्र हैं ,मनुष्य की आकृतियां बनीं हैं तथा आड़ी-तिरछी लकीरें भी बनाई गई हैं । शिकार करने का चित्र , सीढ़ीनुमा चित्रों की विशेषता हैं । 
  • यहां उल्लेखित है कि सबसे पहले कुत्ता पाला गया था ।
  • सिंधु घाटी सभ्यता - लगभग 4500 वर्ष पहले यह सभ्यता 2600 ई.पू. से 1900 ई.पू. तक विकसित रही। इस संस्कृति से संबंधित लगभग 250 से अधिक जगहें भारत में मिली हैं जिसमें प्रमुख हैं-लोथल, धौलावीरा (गुजरात), कालीबंगा (राजस्थान), रोपड़ (पंजााब), आलमगीरपुर (उप्र)। 
  • सिंधु सभ्यता का फैलाव अफगानिस्तान, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक था। 
  • हड़प्पा की खुदाई 1921 में दयाराम साहनी द्वारा, मोहनजोदड़ो की खुदाई 1922 में राखालदास बनर्जी द्वारा किया गया था।  
  • मोहनजोदड़ो में स्नानागार मिलें हैं जिसकी माप लंबाई 12 मी॰ चौड़ाई 7 मी॰ गहराई 2‐5 मी॰ थी। 
  • हड़प्पा में अन्नागार मिलें हैं, पशुपति की मोहरें मिलीं है जिसमें शेर, हाथी, गेंडा, हिरन की प्रतिकृति है।
  • सिंघु धाटी की फसलें- गेंहू, जौ, तिल, कपास ज्ञात घातुएँ- ताँबा, पीतल, राँगा, शीशा, कांसा, सोना था। 
  • विदेशी व्यापार मुख्य रूप से मेसोपोटामिया के साथ होता था।  
  • विदेशी व्यापार मुख्य रूप से जल मार्ग से तथा आंतरिक व्यापार जल और थल दोनों से होता था। 
  • लोथल में नाव के नमुने एवं बंदरगाह के अवशेष मिलें हैं। 
  • यहां स्त्री एवं पुरूष दोनों ही श्रृंगार करते थे, खुदाई से श्रृंगारपेटी तथा आभुषणों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। 
  • मुहरों में पीपल व पशु के चित्र ज्यादातर होते थे, पीपल प्रमुख पूजनीय वृक्ष माना जाता था। 
  • सिंधुवासी मृतकों का अंतिम संस्कार भी करते थे, संभवतः दफनाने की प्रथा थी। 
  • उनकी लिपि दाईं से बांई ओर होती थी और आज तक नहीं पढ़ी जा सकी  है। 
  • उनकी नगर योजना में चौड़ी और समकोण सड़कें होती थी जिनके किनारों पर नालियां और दोनो ओर भवन होते थे। उॅचे हिस्से में परकोटे वाले प्रमुख भवन थे जबकि निचले हिस्सों में सघन बस्ती होती थी। 
  • लोथल के समान ही छ‐ग‐ में रायपुर जिले के पांडुका ग्राम के पास सिरकट्टी नामक स्थान पर, पैरी नदी में प्राचीन बंदरगाह के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहां डाकयार्ड अर्थात् व्यापारिक नाव खड़े होने की गोदी है। यह गोदी चट्टानों को काटकर  बनाई गई थी जो 5-6 मीटर चैड़ी है।अनुमान है कि यह स्थान बंदरगाह के साथ-साथ विपणन केंद्र भी था, यहाॅ से भी देश विदेश में व्यापार होता था। यह स्थान लोथल के बाद का है पर उसी के जैसा है। 

  • वैदिक काल- (2000 ई‐पू‐-1500 ई‐पू‐) लगभग 3500-4000 वर्ष पूर्व सिंघु-सरस्वती के मैदान में विकसित, इसको विकसित करने वाले स्वयं को आर्य कहते थे, आर्य का अर्थ - ’’ श्रेष्ठ या सुसंस्कृत’’। 
  • वैदिक साहित्य विश्व के प्राचीनतम साहित्यों में से एक हैं, इनकी भाषा संस्कृत है। 
  • प्रमुख 4 वेद हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद,अथर्ववेद(क्रमानुसार)। 
  • सम्पूर्ण वैदिक साहित्य श्रुति साहित्य कहलाता है जो कि गुरू द्वारा शिष्य को मौखिक गुरू मंत्र सिखाये जाने से बना है, शिष्य इन मंत्रो को सावघानीपूर्वक कंठस्थ करके पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करते थे। 
  • ऋग्वेद सबसे प्राचीनतम ग्रंथ है, इसके मंत्रो को सुक्त कहा जाता है, सुक्त का अर्थ ’’अच्छी तरह बोला ’’ गया होता है। 
  • ऋग्वैदिक या पूर्व वैदिक काल- इस काल में लोग सप्तसिंधु प्रदेश में रहते थे। अर्थात् सिंधु एवं उसकी सात सहायक नदियों का क्षेत्र। 
  • प्रमुख व्यवसाय- पशुपालन, खेती भी करते थे परंतु प्रमुखतया पशुपालन था, फसल में प्रमुख रूप से जौ उगाते थे। गायें प्रमुख पुंजी थीं, रथ के लिए घोड़े का पालन करते थे इसके अलावा कुत्ता, भेड़ व बकरियां भी पाली जाती थीं। 
  • रथकार प्रमुख कारीगर थे, लोग लकड़ी एवं मिट्टी के घरों में रहते थे तथा गौशालायें भी होतीं थीं। पिता परिवार का मुखिया होता था । 
  • आर्य महिलायें सूत कातती थीं एवं कपड़े बुनती थीं। महिलाओं का सम्मान था, वे शिक्षित होंती थी और उन्होंने कई सुक्तों की रचनायें की थी साथ ही उनकी भागीदारी धार्मिक अनुष्ठानों में भी होती थीं। 
  • एक गांव में सभी रिश्तेदार होते थे, गांव से मिलकर ’’जन’’ बनता था जैसे- पुरूजन, कुरूजन, यदुजन आदि। जन प्रमुख ’राजन’ कहलाता था, जो वंशानुगत नहीं होते थे बल्कि चुने जाते थे। 
  • इस समय कुछ लोग संस्कृत नहीं बोलते थे तथा रहन सहन आर्यों से अलग था उनको ’’ दस्यु, दास या पाणि’’ कहा जाता था। 
  • कभी-कभी आर्यो तथा दस्युओं में युध्द भी होता था परंतु उनमें छुआछूत एवं जांतपांत नहीे था। यहां गणतांत्रिक व्यवस्था थी। 
  • चरागाह, पशुओं आदि के लिए जन का आपस में युध्द होता था, विजेता राजन पराजित जन की सम्पदा अपने जन में बांट देता था। उनकी अपनी कोई सेना नही थी परंतु जरूरत के समय जन के सभी पुरूष मिलकर युध्द में भाग लेते थे। 
  • प्रमुख देवता - इन्द्र, अग्नि, वरूण, सोम आदि। वैदिक सुक्तों में देवताओं की स्तुति के अलावा प्रकृति वर्णन, विश्व की उत्पत्ति भी शमिल हैं। 
  • संस्कृत भाषा, वैदिक साहित्य, गणतांत्रिक व्यवस्था आदि इस संस्कृति की देन है। 

  • उत्तर वैदिक काल - इस काल में वैदिक संस्कृति सिंधु-सरस्वती नदियों के क्षेत्र से आगे बढकर गंगा-जमुना नदी के मैदान तक फैल चुकी थी। यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद की रचना इसी काल में हुई थी। कृषि का विकास हुआा, उद्योग-धंधों का विकास हुआ। 
  • जन के लोग जहां रहते थे उसे जनपद कहा जाने लगा था, जैसे-कुरू जनपद, पांचाल जनपद, सूरसेन जनपद आदि। 
  • प्रमुख फसल - चावल, गेंहू, तिलहन, दाल आदि। 
  • लोहे का उपयोग करने लगे, इसे वे लोग ’लौह अयस", "कृष्ण अयस’’ या "कृष्ण धातु" कहते थे। 
  • पारिवारिक व्यवस्था में सभी भाई व पीढ़ी के लोग एक परिवार में रहते थे, बुजुर्ग पुरूष परिवार का मुखिया होता था उसे ’’गृहपति’’ कहा जाता था। ज्यादातर गृहपति पशुपालन और खेती करते थे, इन्हें ’वैश्य’ कहा जाता था तथा इनके आसपास रहने वाले लोगों को ’सेवक’ कहा जाता था। 
  • मनुष्य का जीवन 4 आश्रम में बंटा हुआ था- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। 
  • जनपद के मुखिया को ’’राजा ’’ कहा जाता था तथा उसके परिवार के लागों को ’’राजन्य’’ कहा जाता था। गृहपतियों द्वारा दिये गये भेंट से राजा का और राज्य का खर्चा चलता था। युध्द में सभी की भागी दारी होती थी। 
  • राजा व राजन्य बडे-बडे यज्ञ करने लगे थे, जैसे- अश्वमेध, राजसूय आदि। 
  • समाज चार वर्णों में बंटा था - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र। 
  • महाजनपद काल (600 ई.पू. से 325 ई.पू.):- लगभग 2600 वर्ष पहले उस काल में जनपदों का तेजी से विकास हुआ ,खेती समृध्द होने लगी ,गंगा-यमुना मैदानी क्षेत्र में विकास , दक्षिण बिहार (झारखंड) से प्राप्त लोहे से औजार बनाने के बाद जनपदों की शक्ति बढने लगी ,शक्तिशाली जनपद दूसरे जनपदों को जीत कर बडे़ और शक्तिशाली होते गये तथा महाजनपद का उदय हुआ। 
  • इस समय भारत में 16 महाजनपद थे। इनमें कुछ में राजतंत्र था जैसे अंग, काशी, कोसल, मगध आदि। कुछ में प्रजातंत्र जैसे वज्जि(वैशाली), शाक्य(कपिलवस्तु), मल्ल आदि प्रचलित थी। 
  • 16 महाजनपद - कंबोज, गांधार, कुरू, पांचाल, सूरशेन, कोसल, मल्ल, चेती, वत्स, वज्जि, अंग, काशी, मगध, अवंती, अस्मक, मत्स्य । 
  • मगध साम्राज्य को प्राकृतिक संपदा ने शक्तिशाली बनाया। 
  • बिंबिसार - मगध का पहला प्रमुख राजा , इन्होंने शक्तिशाली सेना बनाई, कोसल की राजकुमारी से विवाह कर काशी राज्य दहेज में प्राप्त किया फिर वैशाली की राजकुमारी से विवाह कर समर्थन लिया। दूरवर्ती जनपदों से मित्रता परंतु नजदीकी जनपदों पर चढ़़ाई कर लेता था उदाहरणतः अंग पर चढाई कर चंपा (राजधानी) पर अधिकार कर लिया। बिंबिसार एक योग्य शासक था उसकी राजधानी राजगृह थी, वह किसानों और व्यापारियों सें नियमित कर वसूल करता था। उसके राज्य में अपराधियों को कठोर सजा का प्रावधान था परंतु उसके ही पुत्र अजातशत्रु ने उसकी हत्या कर दी और राज्य हथिया लिया। 
  • अजातशत्रु - अपने पिता की नीतियों पर चलते हुए मगध राज्य का विस्तार किया, वज्जि(वैशाली) में फूट डालकर अपने राज्य में मिला लिया। इनके शासन काल में राजगृह के निकट सप्तपर्णी गुफा में प्रथम बौध्द सम्मेलन हुआ था। 
  • नंद वंश - नंद वंश के संस्थापक शासक महापद्मनंद थे। विशाल सेना के बल पर इस वंश ने उत्तर भारत के कई राज्यों तथा दक्षिण में कलिंग को जीत लिया। अंतिम शासक धननंद थे जो कि अपने प्रजा पर अत्याचार करता था, धननंद को चाणक्य की सहायता से चंद्रगुप्त मौर्य ने मारकर मौर्य वंश की स्थापना की। 
  • महाजनपद काल के प्रमुख नगर - उज्जैन(म.प्र.), चंपा, वैशाली, राजगृह (बिहार) आदि। 
  • इस काल में चांदी व तांबे के सिक्कों का चलन शुरू हुआ, ठप्पा लगाकर इन्हें आहत सिक्कें कहा जाता था। 
  • कर के रूप में किसानों को उपज का छठवां हिस्सा कर देना होता था। 
  • सिकंदर - यूनान के मकदूनिया राज्य का राजा था। 326 ई.पू. में पंजाब में आक्रमण कर वहां के राजा पोरस को हराया बाद में पोरस के जवाब से खुश होकर उससे मित्रता कर ली। सेना के आगे बढने के इंकार करने से वापस लौट गया। 

  • जैन धर्म - स्वामी महावीर जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर थें, इनका जन्म 540 ई.पू. में वैशाली के निकट हुआ था इनके पिता सिध्दार्थ और माता त्रिशला थीं, इनके बचपन का नाम वर्धमान था। जब बड़े भाई की आज्ञा लेकर संन्यास धारण किया तब इनकी उम्र 30 वर्ष थी। 12 वर्ष की तपस्या पश्चात् कैवल्य प्राप्त। 72 वर्ष की आयु में पावापुरी में निर्वाण। 
  • त्रिरत्न - सम्यक् ज्ञान (सत्य और असत्य का ज्ञान होना), सम्यक् दर्शन् ( सच्चा ज्ञान ) ,सम्यक् चरित्र ( अच्छा कार्य करना और गलत त्यागना ) 
  • पंच महाव्रत - 1. सत्य, 2.अहिंसा, 3. अस्तेय (चोरी न करना), 4. अपरिग्रह (धन का संग्रह न करना ), 5.ब्रम्हचर्य पंच महाव्रत के पालन से ही त्रिरत्न की प्राप्ति होती है। 
  • जैन धर्म के सिध्दांतों को “आगम” ग्रंथों में संग्रह किया गया है। 
  • जैन धर्म को व्यापारी और शासक वर्ग से विशेष आश्रय प्राप्त था। 
  • छ.ग. के आरंग में प्राचीन जैन मंदिर है। दुर्ग जिले के नगपुरा में 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी का प्राचीन मंदिर स्थित है इसे "उवसंग्हर पार्श्वनाथ " तीर्थ कहा जाता है।

शेष तथ्य history overview - II में
सौजन्य :- सभी चित्र गूगल से ढूंढे गए हैं एवं समस्त तथ्य छत्तीसगढ़ बोर्ड से लिए गए हैं।  

Sunday 19 August 2018

History class 6 (an overview) - II




  • बौध्द धर्म  - बौध्द धर्म के संस्थापक महात्मा बुध्द का जन्म 561 ई.पू. में कपिलवस्तु के पास लुम्बिनी में हुआ था। इनके बचपन का नाम “ सिध्दार्थ” था, पिता- शुध्दोधन, माता- मायादेवी थी। इनका निर्वाण 80 वर्ष की आयु में हुआ था।
  • 29 वर्ष की आयु में संन्यास के लिए निकल पड़े थे, 6 वर्ष की तपस्या पश्चात् ज्ञान की प्राप्ति हुई जिसे “संबोधि“ कहा जाता है।
  • महात्मा बुध्द को ज्ञान प्राप्ति पीपल वृक्ष के नीचे हुआ था, इसे ही बोधि वृक्ष कहा जाता है जो कि बोधगया में स्थित है।
  • बुध्द ने प्रथम उपदेश ” सारनाथ” में दिया था।
  • बौध्द धर्म में 4 आर्य सत्य- 1. दुःख का सत्य, 2.तृष्णा, 3.तृष्णा का त्याग, 4.निर्वाण ।
  • बौध्द धर्म में जाति-पांति, आत्मा, ईश्वर आदि का विरोध किया गया है।
  • बौध्द धर्म की शिक्षाओं का संग्रह तीन ग्रंथों में हुआ है जिसे ” त्रिपिटक “ कहा जाता है।
  • छ.ग. के सिरपुर में प्राचीन काल में बौध्द धर्म का बड़ा केन्द्र था।

  • मौर्य वंश -संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य - इन्होंने धननंद को हराकर मौर्य वंश की स्थापना की थी,
  • चंद्रगुप्त मौर्य ने सिकंदर के सेनापति सेल्युकस निकेटर को हराकर युनानी राजाओं को आगे बढने से रोक दिया,
  • सेल्युकस ने बाद में चंद्रगुप्त मौर्य से मित्रता कर ली तथा मेगस्थनीज को राजदूत बनाकर भेजा इन्होंने यहां रहकर “इंडिका ” पुस्तक की रचना की जिसमें तत्कालीन भारत का वर्णन मिलता है।
  • कौटिल्य (चाणक्य) ने भी इसी काल में ” अर्थ शास्त्र“ की रचना की थी।
  • बिंदुसार- चंद्रगुप्त मौर्य का पुत्र , बिंदुसार ने दक्षिण के कई राज्यों को जीतकर अपने राज्य में मिला दिया था।
  • अशोक - बिंदुसार का पुत्र, कलिंग का युध्द जीता परंतु इसके पश्चात् उनका मन दुःख से भर गया और उन्होंने धम्म का मार्ग अपना लिया और अपना अलग धम्म (धर्म) बनाया , इसके बढावे के लिए “ धर्म महामात्र” की नियुक्ति भी की।
  • अशोक का राज्य 4 प्रांतो में बंटा हुआ था - उत्तर में तक्षशिला, दक्षिण में सुवर्णगिरी, पूर्व में तोसली, पश्चिम में उज्जयिनी, राजधानी पाटलिपुत्र थी।
  • राजा अशोक के दया, प्रेम, शांति और सभी धर्म के प्रति सम्मान की भावना के कारण उसके सारनाथ स्तंभ को हमारा शीर्ष राष्ट्रीय चिह्न माना गया है।
  • राजा अशोक के शासनकाल में व्यापारियों को ”श्रेष्ठी“ या “सेट्ठी” कहा जाता था।


  • मौर्य साम्राज्य के अंत के बाद शुंग वंश के राजाओं ने मगध साम्राज्य  पर शासन किया। दक्षिण में सातवाहन राजवंश आया। इस मध्य में कई युनानी राजाओं ने भारत के उत्तर पश्चिम में अपना राज्य बनाया जिसमें प्रमुख थे- शक और कुषाण राजवंश।
  • कुषाण वंश का प्रमुख शासक था कनिष्क, इसका राज्य मध्य एशिया के आमु दरिया से लेकर भारत के मथुरा तक फैला हुआ था। कनिष्क के बाद मध्य एशिया से आये हुए राजाओं ने उत्तर-पश्चिम में अपना राज्य बनाया, उनका राज्य काफी विशाल था और इसमें भारत समेंत अफगानिस्तान, ईरान, उज्बेकिस्तान आदि देश शामिल थे। इस कारण भारत और इन देशों के मध्य व्यापार बढा था।
  • चीन से मध्य एशिया होते हुए भूमध्य सागर तक एक रास्ता जाता था उस रास्ते से चीन के रेशम का व्यापार होता था इसे ही ”सिल्क रुट“ के नाम से जाना जाता था।
  • भरतीयों का व्यापार क्षेत्र पश्चिम में मिस्त्र के सिकंदरिया, यूनान और रोम तक था।
  • भारतीय राजाओं ने दक्षिण-पूर्वी एशिया के श्रीलंका, मलेशिया, इंडोनेशिया, कंबोडिया आदि देशों में राज्य बनाया था।
  • अजातशत्रु और अशोक के शासनकाल में सिक्के चांदी या तांबे के टुकडों पर एक तरह के ठप्पे (आहत) लगाकर बनाए जाते थे। जबकि हिंद-यूनानी राजाओं के सिक्के सांचों में ढलते थे जिसमें राजा की तस्वीर और उसका नाम लिखा होता था, इसका प्रभाव बाद में भारतीय राजाओं पर भी पड़ा।

  • इस काल में गांधार और मथुरा में मूर्तिकला का काफी विकास हुआ। गांधार भारत के उत्तर पश्चिम में है और यूनानी-कुषाण साम्राज्य का हिस्सा भी था इस कारण यहंा भारतीय और यूनानी कला का मेल मिलाप देखने को मिलता था।
  • गंधार में बनीं हुई मूर्तियों में हम यूनानी मूर्तिकला का प्रभाव देख सकते हैं, इन मूर्तियों में चुन्नटों की बनावट पर जोर दिया गया है।
  • मथुरा मूर्तिकला में मूर्तियों को हृष्ट-पुष्ट दिखाने पर जोर दिया गया है और चुन्नटों पर कम जोर रहा है।
  • रोमन साम्राज्य और यूनान के सम्पर्क के कारण गणित, ज्योतिष और खगोलशास्त्र की जानकारियों का आदान प्रदान हुआ। इन विषयों से संबंधित युनानी ग्रंथों का अनुवाद संस्कृत में हुआा।
  • सप्ताह के 7 दिन, बारह राशियों की अवधारणा आदि बातें भारतीयों ने यूनानीयों से अपनाया
  • यूनानीयों ने भारत से शून्य की अवधारणा,दशमलव, चिह्न आदि को अपनाया था
  • दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में भी भारतीय मंदिरों की तरह भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ जैसे- अंकोरवाट मंदिर (कंबोडिया), बोरोबोदूर बौध्द मंदिर (जावा) आदि।
  • रामायाण कथा इंडोनेशिया में बहुत लोकप्रिय है।
  • इसी काल में (100 ई.पू. से 300 ईस्वी तक) चिकित्सा शस्त्र में भी काफी विकास हुआ। “चरक संहिता” और ”सुश्रुत संहिता“ लिखे गये थे।
  • गुप्त काल (300 से 500 ईस्वी) -छ.ग. इस काल में दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता था। इसके अंतर्गत बिलासपुर, रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव और उड़ीसा राज्य के संबलपुर जिले आते थे।
  • इस काल में दक्षिण कोसल का राजा था महेन्द्र जो कि समुद्रगुप्त से पराजित हो गया था परंतु वार्षिक कर लेकर समुद्रगुप्त ने राजा महेन्द्र को स्वतंत्र राज्य करने दे दिया था। 
  • गुप्त वंश का प्रमुख राजा था समुद्रगुप्त, इनकी प्रशंसा में इलाहाबाद में शिलालेख खुदी हुई है जिसमें बताया गया है कि समुद्रगुप्त ने “आर्यावर्त”(उत्तर भारत), ”आटविक राज्य “(वनांचल), तथा “दक्षिणापथ”(दक्षिण भारत) के कई राज्यों को हराया था।
  • दक्षिणापथ में जिन राज्यों को हराया उनमें से दो राज्य वर्तमान के छ.ग. में से थे-1.दक्षिण कोसल राजधानी-सिरपुर,  2.महाकांतार- बस्तर और उडीसा क्षेत्र।
  • समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त के राजाओं को हराकर उनके राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया था परंतु दक्षिणापथ के राजाओं को हराने के बाद उनका राज्य लौटा देता था।
  • उस काल के ढ़ाले गए कुछ सोने के सिक्कों में समुद्रगुप्त को वीणा बजाते हुए दिखाया गया था।
  • समुद्रगुप्त के पश्चात् उसका पुत्र “चंद्रगुप्त विक्रमादित्य“  राजा बना, उसका राज्य बंगाल से गुजरात तक फैला था। उसने दक्षिण के महत्वपूर्ण शासकों से दोस्ती भी की थी।
  • गुप्त राज्य कई भुक्ति (प्रांतों) में बंटा था और भुक्ति विषयों (जिलों) में बंटा था। जिले का प्रशासन वहीं के स्थानीय लोग चलाते थे ।
  • गुप्त काल में स्थानीय लोगों की भूमिका अधिक थी,
  • इस काल में कुमारगुप्त, स्कंदगुप्त आदि प्रसिध्द राजा हुए थे,
  • इस समय “फाह्यान” (चीनी यात्री) भारत आये थे,
  • जाति प्रथा, सती प्रथा भी इसी काल में प्रारंभ हुआा था,
  • गुप्त राजा स्वयं वैष्णव धर्म मानते थे परंतु प्रजाा अपने अनुसार धर्म मानने के लिए स्वतंत्र थे,
  • इस काल में प्रमुख खगोलशास्त्री और गणितज्ञ ”आर्यभट्ट“ हुए जिन्होंने “आर्यभट्टीयम” की रचना की थी और पृथ्वी के गोल होने की बात कही थी,
  • “बराहमिहिर” भी प्रमुख खगोलशास्त्री हुए जिन्होंने फलित ज्योतिष को जोडने का प्रयास किया था,
  • इस काल में चिकित्सा, खासकर पशुओं की चिकित्सा पर कई पुस्तकें लिखी गईं थीं।
  • संस्कृत साहित्यों की रचना भी बहुतायत इसी काल में हुई, प्रमुख कवि कालिदास, भारवि, शुद्रक, माघ इसी काल में हुए थे, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार के 9 रत्नों में कालिदास प्रमुख थे जिन्होंने “मेघदूतम्”,”अभिज्ञान शकुंतलम्“,“कुमारसंभवम्” नाटकों की रचना की थी।
  • अजंता गुफा  के भित्ति चित्र इस काल के सर्वोत्तम चित्रकला हैं, जो कि भगवान बुध्द के जीवन से संबंधित है।

  • गुप्त काल में सारनाथ में विशाल बौध्द विहार बना, देवगढ (झांसी) का ”दशावतार मंदिर“, विदिशा स्थित उदयगिरी की गुफाएं इसी काल की बनी हैं।
  • इसी काल की बनी कानपुर के पास भीतरगांव में स्थित “विष्णु मंदिर” संसार में ईंटों की बनी सबसे प्राचीन मंदिर है।
  • छ.ग. में सिरपुर लक्ष्मण मंदिर  599 ई.पू. के आसपास बना था जिसका शिखर भीतरगांव के शिखर से काफी मिलता जुलता है। सिरपुर में आज भी माघ पूर्णिमा और बुध्द पूर्णिमा के पर्व पर मंला लगता है।
  • वर्धन वंश - गुप्त वंश के पतन के 100 साल बाद एक नए राज्य का उदय हुआ इसे वर्धन वंश के नाम से जाना गया, इसकी राजधानी “दिल्ली के पास थानेश्वर“ थी ।
  • प्रमुख शासक “हर्षवर्धन” थे, 606 ई. में सिंहासन पर बैठे थे, इनकी मृत्यु 647 ई. में हो गयी ।
  • इनका राज्य पंजाब से उड़ीसा तक फैला था, बाद में इन्होंने अपनी राजधानी कन्नौज  को बनाया।
  • बाणभट्ट हर्ष के दरबारी कवि थे, उन्होंने ”हर्षचरित“ में हर्ष की जीवनी लिखी थी।
  • हर्ष ने स्वयं “रत्नावली”, ”नागानंद“, “प्रियदर्शिका” नाटक की रचना की थी।
  • हर्ष शिव उपासक थे,
  • अपने शासन काल में उन्होंने कन्नौज में बौध्द सभा का आयोजन कराया था और प्रत्येक चैथे वर्ष में प्रयाग में धर्म सम्मेलन करते थे। इस आयोजन में अपना सब कुछ गरीबों को दान कर देते थे।
  • हर्ष के काल में नालंदा बौध्द शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था, हर्ष ने 100 गांव नालंदा विहार के लिए दान दिए थे।
  • ह्वेनसांग (चीनी यात्री) 630 ई. में भारत आया था, 5 वर्ष यहां अध्ययन करने के पश्चात् चला गया । ह्वेनसांग ने नालंदा से शिक्षा प्राप्त किया। इन्होंने छ.ग. के सिरपुर की यात्रा भी की थी और कहा था कि सिरपुर बौध्द शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था।
  • चालुक्य वंश - इस काल में दक्षिण में अर्थात् कर्नाटक और महाराष्ट्र में चालुक्यों का शासन था। चालुक्यों की राजधानी वातापी काफी समृध्द थी। चालुक्यों का व्यापार ईरान, अरब, लाल सागर के बंदरगाह से दक्षिण पूर्व एशिया तक फैला था।
  • पुलकेशिन द्वितीय शक्तिशाली शासक था, इसने हर्षवर्धन को हराकर दक्षिण की ओर बढ़ने से रोका था।
  • पल्लव वंश के राजा महेन्द्रवर्मन को भी पराजित किया था परंतु बाद में नृसिंह वर्मन से पराजित हुआ।
  • चालुक्य कला प्रेमी व कला संरक्षक थे, उन्होंने दक्कन के पहाड़ियों में गुफा मंदिर तथा अन्य मंदिरों के लिए काफी धन दिया था। इन मंदिरों में से प्रमुख है अजंता एलोरा की गुफा, अजंता के गुफा चित्र में पुलकेशिन द्वितीय को ईरान के राजदूतों का स्वागत करते हुए दिखाया गया है।
  • चालुक्यों के काल में ऐहोल बादामी और पट्टदकल नगर कला के प्रमुख केन्द्र थे।
  • चालुक्य राजा जैन धर्म को मानते थे परंतु कुछ शैव व वैष्णव धर्म को भी मानते थे।
  •  पल्लव वंश - सुदुर दक्षिण तमिलनाडु में पल्लव वंश का शासन था। राजधानी कांचीपुरम (कांची) में थी।
  • महेन्द्र वर्मन प्रमुख शासक हुआ जिसके हार का बदला उसके पुत्र नृसिंह वर्मन ने पुलकेशिन द्वितीय से लिया,
  • महेन्द्र वर्मन ने चट्टान खोदकर मंदिर बनाने की परंपरा की शुरुआत की थी, ”महाबलीपुरम् का रथ मंदिर“ इसका उदाहरण है।
  • चट्टानों को जोड़कर भी मंदिर बनाये गये जैसे- “कांची का कैलाश मंदिर”।
  • पल्लव राजा शुरु में जैन धर्म को मानते थे मगर बाद में शिव और विष्णु के उपासक बन गए।
  •  इस काल में शिव व विष्णु के व्यक्तिगत उपासना पर जोर दिया गया जिसे बाद में भक्ति  का नाम दिया गया, इस समय भजन तमिल में होते थे और जन साधारण के उपयोग में आते थे।
  • विष्णु के भक्त ”आल्वार“ और शिव के भक्त “नायनार” के नाम से जाने जाते थे।
सौजन्य :- सभी चित्र गूगल से ढूंढे गए हैं एवं समस्त तथ्य छत्तीसगढ़ बोर्ड से लिए गए हैं।